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अ॒यं होता॑ प्रथ॒मः पश्य॑ते॒ममि॒दं ज्योति॑र॒मृतं॒ मर्त्ये॑षु। अ॒यं स ज॑ज्ञे ध्रु॒व आ निष॒त्तोऽम॑र्त्यस्त॒न्वा॒३॒॑ वर्ध॑मानः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ hotā prathamaḥ paśyatemam idaṁ jyotir amṛtam martyeṣu | ayaṁ sa jajñe dhruva ā niṣatto martyas tanvā vardhamānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। होता॑। प्र॒थ॒मः। पश्य॑त। इ॒मम्। इ॒दम्। ज्योतिः॑। अ॒मृत॑म्। मर्त्ये॑षु। अ॒यम्। सः। ज॒ज्ञे॒। ध्रु॒वः। आ। नि॒ऽस॒त्तः। अम॑र्त्यः। त॒न्वा॑। वर्ध॑मानः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:9» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब इस देह में दो जीवात्मा और परमात्मा वर्त्तमान हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! जो (ध्रुवः) निश्चल दृढ़ (निषत्तः) स्थित (प्रथमः) पहिला (होता) देने वा ग्रहण करनेवाला (अयम्) यह और (मर्त्येषु) मरणधर्म्मयुक्त शरीरों में (इदम्) इस प्रत्यक्ष (अमृतम्) नाश से रहित (ज्योतिः) सूर्य्य के सदृश अपने से प्रकाशित चेतन परमात्मा है उस (इमम्) इस को (पश्यत) देखिये और जो (अयम्) यह (अमर्त्यः) मरणधर्म्म से रहित (तन्वा) शरीर से (वर्धमानः) बढ़ता हुआ (आ) चारों ओर से (जज्ञे) प्रकट होता है (सः) वह जीव है, ऐसा देखो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! इस शरीर में दो चेतन नित्य हुए जीवात्मा और परमात्मा वर्त्तमान हैं। उन दोनों में एक अल्प, और अल्पदेशस्थ जीव है, वह शरीर को धारण करके प्रकट होता, वृद्धि को प्राप्त होता और परिणाम को प्राप्त होता तथा हीन दशा को प्राप्त होता, पाप और पुण्य के फल का भोग करता है। द्वितीय परमेश्वर ध्रुव, निश्चल, सर्वज्ञ, कर्म्मफल के सम्बन्ध से रहित है, ऐसा तुम लोग निश्चय करो ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथास्मिन् देहे द्वौ जीवात्मपरमात्मानौ वर्तेते इत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यो ध्रुवो निषत्तः प्रथमो होताऽयं मर्त्त्येष्विदममृतं ज्योतिः परमात्मास्ति तमिमं पश्यत योऽयममर्त्त्यस्तन्वा वर्धमाना आ जज्ञे स जीवोऽस्तीति पश्यत ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (होता) दाता ग्रहीता वा (प्रथमः) आदिमः (पश्यत) (इमम्) (इदम्) प्रत्यक्षम् (ज्योतिः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशं चेतनं परमात्मानम् (अमृतम्) नाशरहितम् (मर्त्येषु) मरणधर्मेषु शरीरेषु (अयम्) (सः) (जज्ञे) जायते (ध्रुवः) निश्चलो दृढः (आ) (निषत्तः) निषष्णः (अमर्त्यः) मरणधर्मरहितः (तन्वा) शरीरेण (वर्धमानः) यो वर्धते सः ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! अस्मिञ्छरीरे द्वौ चेतनौ नित्यौ जीवात्मपरमात्मानौ वर्त्तेते तयोरेकोऽल्पोऽल्पज्ञोऽल्पदेशस्थो जीवः शरीरं धृत्वा जायते वर्धते परिणमते चाऽपक्षीयते पापपुण्यफलं च भुङ्क्ते अपरः परमेश्वरो ध्रुवः सर्वज्ञः कर्म्मफलसम्बन्धरहितोऽस्तीति निश्चिनुत ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! या शरीरात दोन चेतन, एक आत्मा व दुसरा परमात्मा हे नित्य असतात. त्या दोन्हीत एक अल्प, अल्पज्ञ व अल्पदेशस्थ असा जीव असतो. तो शरीर धारण करून प्रकट होतो, वाढतो व परिणामी असतो तसेच हीन दशेलाही प्राप्त होतो. पाप-पुण्याचे फळ भोगतो. दुसरा परमेश्वर ध्रुव, निश्चल, सर्वज्ञ कर्मफलसंबंधरहित असतो. याचा तुम्ही विचारपूर्वक निश्चय करा. ॥ ४ ॥